Sunday 9 February 2020

निमंत्रण की प्रतीक्षा

निमंत्रण की प्रतीक्षा
भाषांतर सौजन्य: Anand Rajadhyaksha जी

हम आप के निमंत्रण की प्रतीक्षा कर रहे हैं पवार साहब !

आज से 46 साल पूर्व का प्रसंग स्मरण हो आया। तत्कालीन उत्तर मध्य मुंबई के संसद रा. धों. भंडारे को इंदिराजी द्वारा बिहार का राज्यपाल नियुक्त किए जाने पर उन्हें नियम अनुसार अपने सांसद पद का त्यागपत्र देना पड़ा था। उस जगह के लिए उपचुनाव होने थे। उसी समय कम्युनिस्ट यूनियन ने मिल मजदूरों का हड़ताल घोषित किया था। काम्रेड डांगे मजदूरों के नेता थे और उन्होने उपचुनाव में अपनी कन्या रोझा देशपांडे को उतारा था। काँग्रेस के प्रत्याशी थे रामराव आदिक। असल में तो यह शिवसेना का गढ़ था क्योंकि वहाँ के 30 में से 19 पार्षद शिवसेना के थे। लेकिन सेना ने इस चुनाव से मुंह फेर लिया था। इसपर भड़के हुए शिवसैनिक बंडू शिंगरे ने विद्रोह किया था और हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष विक्रम सावरकर को अपक्ष प्रत्याशी बनाकर मैदान में उतारा था। हिंदुत्ववादी कई लोगों की इच्छा थी कि शिवसेना को उनका समर्थन करना चाहिए, लेकिन शिवसेना ने खुले आम रामराव आदिक को समर्थन दिया और खलबली मच गई।

पुणे से प्रकाशित 'सोबत' साप्ताहिक के संपादक ग. वा. बेहेरे ने , जो यूं तो शिवसेना समर्थक थे, अपने साप्ताहिक में सेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे की तीखी आलोचना करता हुआ लेख लिखा था, जिससे शिवसैनिक भड़के हुए थे। लेख का शीर्षक था  - सेनापति या शेणपति?

संयोगवश उसी सप्ताह में शिवाजीपार्क स्थित बालमोहन विद्यामन्दिर  स्कूल के हॉल में 'सोबत' का वर्धपन दिन मनाया जाना था। बेहेरे जी उसके लिए मुंबई आए थे और पास ही रहने वाले अपने मित्र माधव मनोहर जी के घर उतरे थे। शाम को दोनों ही समारोह के लिए निकले ही थे तब शिवाजीपार्क के सिग्नल पर दर्जनभर शिवसैनिकोंने उनपर हमला किया और तबीयत से पीटा। उनके कपड़े फटे और लहूलुहान भी हुए। साठ पार  कर चुके बेहेरे जी या माधवराव तो हमलावरों को रोकने के भी काबिल नहीं थे। जब शिवसैनिकों के हाथ से छूटे तब कहीं जैसे तैसे ये घर लौटे और डॉक्टर को बुलाकर मरहमपट्टी कारवाई और नए कपड़े पहनकर समारोह स्थल पहुँच गए। अब देखें आगे क्या होता है। 

समारोह में मरहम पट्टी लगाकर आए यजमान और प्रमुख अतिथि की हालत देखकर आए हुए श्रोता तो हक्का बक्का रह गए। लेकिन इन दोनों ने यो हुआ सो उपस्थितों को बयान किया, और हमले के निषेध में दो मिनट का मौन रखकर समारोह यथाविधि सम्पन्न हुआ। उस समय में पत्रकारिता आज जैसी न थी और न ही व्हाट्सएप्प वगैरा कुछ उपलब्ध थे। इसलिए इसका कहीं तत्काल बवाल नहीं हुआ। माधवराव और उनके भाई काम्रेड प्रभाकर वैद्य वैसे प्रगतिशील  कहलाते थे लेकिन वे भी बेहेरे जी के सवारकरवादी ‘सोबत’ के नियमित लेखक थे और दोनों में सौहार्द भी था। तीखे वाद विवाद उनमें भी होते थे लेकिन विद्वेषपूर्ण या अजेंडावाले आरोप कभी नहीं लगाए गए। यह आज की ‘प्रगतिशील’ पत्रकारिता की खोज है। इसलिए उन्होने इस हमले को लेकर कोई माहौल नहीं बनाया। पत्रकार संगठनों ने भी इसपर कोई बवाल नहीं काटा।
रात के नौ तक वह समारोह सम्पन्न हुआ तब माधवराव और बेहेरे जी घर पहुंचे। रात को जैसे ये दो घर पहुंचे तो माहिम पुलिस थाने के वरिष्ठ अधिकारी वहाँ पहुंचे और उन्होने आग्रह किया कि शिकायत लिखवाएँ। उन्हें मंत्रालय से तत्कालीन गृह राज्यमंत्री जी का फोन से आदेश मिला था। इतना बड़ा हमला अगर पत्रकारों पर होता है तो हमलावरों पर कठोर कार्रवाई हो ऐसा आदेश मिला था । लेकिन बिना शिकायत के कार्रवाई कैसे करें, इसलिए वे पुलिस अधिकारी माधवराव और बेहेरे जी की मिन्नतें कर रहे थे कि आप शिकायत लिखवाएँ।

लेकिन ये दोनों महानुभाव शिकायत लिखवाने को तैयार ही नहीं थे। क्या वे डरे थे ?क्या उन्हें डर लग रहा था कि शिकायत लिखवाई तो शिवसैनिकों से और पिटाई खानी होगी ?

ऐसा बिल्कुल नहीं था। उनका दावा था कि कार्रवाई कोई काम की नहीं होगी। बेहेरे जी ने कहा कि जिन्होने हमें पीटा उन्होने मेरा लेख पढ़ा नहीं होगा। पढ़ा भी होगा तो उन्हें उसका आशय समझ नहीं आया होगा। इसलिए ये कहना कि उस लेख के कारण उन्होने चिढ़कर हमला किया, बेमतलब की बात है। और वैसे भी उन्हें पकड़ने से क्या हासिल होगा ?हफ्ता भर में उन्हें जमानत मिलेगी और केस चलकर उन्हें सज़ा दी भी गयी तो भी उस सजा का उनपर कोई परिणाम नहीं होगा। तो फिर यह सब करने का लाभ क्या ? और तो और, जमानत पर बाहर आते ही वे कोई और गुनाह करने के लिए उपलब्ध भी होंगे। मुद्दा उन्हें सज़ा देने का नहीं विचारों का है। अगर वे विचारों की लड़ाई घूसे से लड़ते हैं तो उनको विचार करने को मजबूर करने को मैं पत्रकारिता मानता हूँ। उससे मुंह फेरकर इन जख्मों के लिए उन्हें पुलिस के कोठरी में रखवाना, पत्रकारित की हार है, याने मेरी भी हार ही है। यह उनके गुंडागर्दी की जीत होगी। क्योंकि उनकी गुंडागर्दी को पुलिस के बल से उत्तर देने में विचार की पीछेहठ है। पत्रकारिता किसी को सज़ा के पत्र ठहराने नहीं होती बल्कि उसमें सोचने के लिए प्रवृत्त करने की कोशिश होती है। अगर उसमें हम असफल रहे इसलिए पुलिस के पास दौड़े जाना पत्रकारिता का बलि चढ़ाना है। मुझे इसमें सहभागी नहीं होना।

बेहरे जी का यह युक्तिवाद सुनकर वे पुलिस अफसर तो हक्का बक्का रह गए। फिर भी वे आग्रह करते रहे, लेकिन बेहेरे जी ने उनकी एक न सौनी। तब उन्होने माधवराव को आग्रह किया कि आप तो शिकायत लिखवाएँ। बेहेरे जी ने तफसील से अपनी भूमिका रखी थी, लेकिन माधवरॉ ने बस एक वाक्य कहा और वे पुलिस अफसर की बोलती ही बंद हो गयी।

“स्वतन्त्रता मुफ्त में नहीं मिलती, न ही भीख में मिलती है; अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अपने लोकतन्त्र में सस्ती नहीं होती। अनाड़ियों के इस लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की इतनी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी ना ?”

माधव मनोहर जी के वे नपे तुले शब्द आज भी वैसे ही मेरे कानों में गूँजते हैं। यूं कहें कि मेरे पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का यह वाक्य मूलमंत्र बन गया।

आज वो जमाना नहीं रहा। आज पत्रकारिता की लड़ाई भारतीय दंडविधान के हथियार से लड़ी जाती है। हम उसमें प्रचलित, गतकालिक पत्रकार हो गए हैं। लेकिन सच में जब पत्रकारों ने ही कलम की जगह दंडविधान को अपना शस्त्र बनाया तो इतरोने भी उसे मार्ग से पत्रकारिता को हराने का बीड़ा उठाया तो उन्हें क्या दोष दें ? आजकल अनेक पत्रकारों की आवाज अलग अलग कानून और पुलिस कार्रवाई से दबाई जाती है ऐसी शिकायतें सुनने में आ रही है। मैं उनमें से बिलकुल नहीं हूँ।

अस्तु, जिन गृह राज्यमंत्री के आदेश से वे पुलिस अधिकारी बेहेरे जी और माधवराव को शिकायत लिखवाने का इतना आग्रह कर रहे थे उन गृह राज्यमंत्रीजी का नाम था नामदार शरद पवार।

वसंतराव नाईक के मंत्रिमंडल में सहभागी हो कर शरद पवार जी पहली बार प्रशासन के सबक सीख रहे थे - तब की ये बात हैं।

आज उनके ही पक्ष के कुछ कार्यकर्ता और पदाधिकारियों ने मुझे और घनश्याम पाटिल इस पत्रकार को हाथ पाँव तोड़ने की धमकियाँ दी हैं। हमारे विरुद्ध पुलिस में शिकायत भी लिखवाई है। लेखनी को चुनौती दंडविधान से दी है। हिंसा का सहारा लिया है। वो उनका मार्ग है।

पवार साहब को एक ब्लॉगर या मासिक प्रकाशित करनेवाले पत्रकार से दहशत लगती है तो वे अवश्य अपनी पद्धति से और अपने संस्कारों से कृति करें। वो उनका लोकतन्त्र है। मेरा आदर्श बेहेरे और माधव मनोहर हैं। अनाड़ियों के लोकतंत्र में कीमत चुकाने का सबक सीखकर साडेचार धशकों से अधिक समय बीत चुका है। अब नए सिरे से अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का रोना रोऊँ ये मेरे बस का नहीं। 

जिसने भी शिकायत लिखवाई है वे ऐसा करने को स्वतंत्र हैं, उन्हें वह अधिकार भी है। लेकिन उसके बाद धमकियाँ देनेवाले पवार साहब के पक्ष के युवा संगठन के पदाधिकारी हैं। उनके संगठन का ऐसा अजेंडा हो सकता है। अगर ऐसा है तो मुझे कोई अधिकार या हक नहीं कि मैं उसमें बदलाव की मांग करूँ या बदल करवाऊँ । मैं तो उनसे सहकार्य के लिए भी तैयार हूँ। शरद पवार जी के पक्ष के पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं ने मेरे हाथ पाँव तोड़ने की धमकियाँ दी हैं। उनसे सहकार्य करने के लिए हमें कहाँ हाजिर होना है,   अवश्य बता दें। घनशाम पाटील, अक्षय बिक्कड और भाऊ तोरसेकर ये तीनों ही वहाँ अवश्य हाजिर हो जाएँगे। जगह और समय वे चुनें । हमारी एक ही शर्त है, ऐसे सहिष्णु गांधीवादी समारोह के अध्यक्ष स्थान पर स्वयं शरद पवार विराजमान हों।

Hindi Translation

Bhau Torsekar

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