Monday, 3 September 2018

Pune Police Press Conference - Bhima Koregaon



















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The media is reporting today that: "The Bombay High Court raised questions Monday over Maharashtra police's media briefing on its case against some prominent activists arrested for their alleged links with Maoists.Justices S S Shinde and Mridula Bhatkar questioned how the police could read out such documents which may be used as evidence in the case. "How can the police do it? The matter is sub judice. The Supreme Court has seized the matter. In such cases, revealing information pertaining to the case is wrong." Justice Bhatkar said.

(Link https://timesofindia.indiatimes.com/india/bombay-hc-questions-maharashtra-polices-media-briefing-in-case-against-activists/articleshow/65655594.cms)

The meadia reports however did not make it clear if High Court pointed out the exact provision of law that prevents the police from holding press conference and sharing the details of the documents they confiscated from the arrested individuals with the public.

And if  such is the matter then can someone clarify if it is legally correct for the media to report the matters which are sub judice? Sheer reporting of the matter could also be interpreted to lead to building public pressure?


It is not clear to me as to who exactly is put to inconveniece by the reading of documents in the press conference by the police.


Is there SOMEONE who is interested in denying the existence of such documents as evidence? If yes then is the objection to this public disclosure driven against permanently closing the possibility of opportunity to them to deny existence of this evidence?

If denial is foreclosed, next could be destruction. But even that possibility has been prevented so I am inclined to conclude.

Is it not obvious that the public reading of the documents in a press conference has permanently prevented any future likelihood of destruction of the said documents - either by state or police or complainants or accused or by just anyone around?

So who exactly is restless over this development?

My country does not have a jury system.

And thus there exists no possibility that premature exposure of evidence to public can influence the "juries" sitting in judgement.

In my country, the judiciary is expected to "interprete" the law and give justice. Why would it be influenced by what ostensibly "people" think vis a vis what law says?

Or are we saying that interpretation of statutes is being influenced by public opinion?

Are they indicating or accepting that influence does play its role?

And if such is the case then do we assume that any previous decisions passed by the courts in India were indeed influenced by pressure of public opinion?

These are the stubborn questions which are staring at me with NO EASY ANSWERS.

Do you also concur with these questions?

If so, would you try to pose them before your friend circle?

from Your Friend

A citizen of India who believes that the our constitution gives me the FUNDAMENTAL RIGHT OF Freedom of Expression

@Swati Torsekar




प्रकरण न्यायप्रविष्ट असताना पोलिसांनी वार्ताहर परिषद का घेतली असा प्रश्न आज मुंबई उच्च न्यायालयाने विचारला असे माध्यमे सांगत आहेत.

कोणत्या कलमानुसार अशी वार्ताहर परिषद घेण्यावर बंदी आहे हे न्यायालयाने स्पष्ट केल्याचे माझ्या वाचनात आले नाही.

असेच असेल तर न्यायालयीन प्रक्रियेवरील रिपोर्टींग तरी कायद्यात बसते का हे ही स्पषट करावे.

पोलिसांनी जनतेसमोर पुरावे मांडले तर कोणाची अडचण होते हेही स्पष्ट करावे.

जनतेसमोर आलेले असे पुरावे मुळात अस्तित्वात नसल्याचे प्रतिपादन कोणाला करायचे असावे? असे असेल तर त्यांची सोय करून का दिली जावी?

असे पुरावे भविष्यात "नष्ट" करण्याचे "स्वातंत्र्य" वा मुभा यानंतर कोणालाच - ना पोलिसांना ना सरकारला ना आरोपीला - राहणार नाही यामुळे कोणाची कुचंबणा होत आहे?

आमच्या देशात ज्यूरी व्यवस्था नाही. जनमताच्या दडपणाने न्याय फिरवला जाईल ही अपेक्षा नाही. कारण इथे निकाल कायद्याचा अर्थ लावून दिला जाईल ही अपेक्षा आहे.

असा अर्थ लावण्याच्या कामात जनमताचा अडथळा येऊ शकतो काय?

वार्ताहर परिषद घेतल्याने आपल्यावर दबाव येतो असे न्यायालय सुचवत आहे की कबूल करत आहे? तसेच असेल तर यापूर्वी अशा प्रकारे जनतेसमोर जे खटले व त्यातील बाबी मांडल्या गेल्या त्या खटल्यातही मुंबई न्यायालयाने दबावाखाली निर्णय दिले असे जनतेने मानावे काय?

मला हे प्रश्न पडले आहेत.

तुम्हाला ते पटतात काय? असतील तर तुम्ही ते प्रश्न आपल्या मित्रांपर्यंत पोचवणार काय??

या देशात घटनेनुसार अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा हक्क आहे असे मानणारी

आपली स्नेहांकित

@स्वाती तोरसेकर


परममित्र श्री Anand Rajadhyaksha जी ने हिंदी रूपांतर दे दियाहै इसलिये उनकी आभारी हूँ.

(अर्बन नक्सलियों का) मामला जब न्यायालय के विचाराधीन है तब महाराष्ट्र पुलिस ने प्रैस कॉन्फ्रेंस कैसे बुलाई - ऐसा प्रश्न आज मुंबई उच्च न्यायालय ने किया ऐसे मीडिया बता रही है ।

किस धारा के अनुसार ऐसी प्रैस कॉन्फ्रेंस बुलाना मना है इसपर न्यायालय ने कुछ कहा तो मेरी नज़र में नहीं आया।
अगर ऐसा ही है तो न्यायालयीन प्रक्रिया की रिपोर्टिंग भी किस कानून के तहत सम्मत है यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए।
पुलिस अगर जनता के सामने सबूत रखे तो किसे असुविधा होती है यह भी स्पष्ट हो जाये ।
क्या किसी को यह प्रतिपादन करना है कि जनता के सामने आए हुए ऐसे सबूतों का कोई अस्तित्व ही नहीं था ? अगर ऐसा है तो उन व्यक्तियों की
ऐसे सबूत अब भविष्य में नष्ट करने की स्वतन्त्रता या इजाजत किसी को नहीं रहेगी - न पुलिस अब उन्हें नष्ट कर सकेगी और न अभियुक्त - किसके लिए यह बात असुविधाजनक है ?
अपने देशमें ज्यूरी व्यवस्था नहीं है । जनमत के दबावसे न्याय पलट दिया जाएगा यह अपेकषा नहीं क्योंकि यहाँ यह अपेक्षा है कि निर्णय, कानून के अर्थ को समझकर उसके अनुसार दिया जाएगा।
क्या ऐसे अर्थघटन में जनमत का दबाव अवरोध बन सकता है ?
न्यायालय क्या बताना चाहता है ? प्रैस कॉन्फ्रेंस से उनपर दबाव आयेगा ऐसा सूचित कर रही है या स्वीकार कर रही है ? अगर ऐसा ही है तो इसके पहले जनता के सामने जो भी इस तरह के मामलात आए और जो बातें रखी गई, क्या जनता यह मान ले कि उन मामलात में भी मुंबई न्यायालय ने दबाव में आकर फैसले सुनाये थे ?

मेरे सामने ये ये प्रश्न खड़े हैं ।

क्या आप सहमत हैं ? अगर हैं तो क्या आप अपने मित्रों तक इन्हें पहुंचा सकते हैं ?

इस देश में संविधान के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अपना हक है ऐसे मानती

आप की स्नेहांकित

@स्वाती तोरसेकर

इस पोस्ट को हो सके तो काॕपी पेस्ट करके आप अपने टाईमलाईन पर जरूर पोस्ट करें

धन्यवाद

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