मेरे परम मित्र श्री आनंद राजाध्यक्ष जी ने लेख का रूपांतरण कम से कम समय में हिंदी मे उपलब्ध करवाया है इस लिये में उनकी तहे दिल से आभारी हू
शहरी नक्सली - भाग २ (वरिष्ठ पत्रकार- विश्लेषक Swati Torsekar जी के दूसरे लेखांक का यथाशक्ति रूपांतर)
अर्बन पर्स्पेक्टीव्ह इस दस्तावेज़ में स्पष्टता से उल्लेख किया गया है कि माओवादियों का संघर्ष ग्रामीण विभाग से शुरू होगा - वहाँ के प्रदेशों में माओवादी शासत प्रस्थापित हो जाये और संगठन के पास पर्याप्त बल उपलब्ध हो जाये फिर शहरोंपर मोर्चा खोला जाएगा। प्रचलित शासन तंत्र गांवों तक सीधा पहुँचती नहीं, और वहाँ तक अपने दूत और प्रतिनिधि - कलेक्टर – बीडीओ, पुलिस आदि ब्रष्ट होने के कारण उनसे ट्रस्ट जनता को अपने साथ करा लेना सरल होता है । इसमें सरकार से अवरोध की संभावना भी कम ही होती है । इसीलिए ग्रामीण विभागों में अपनी धाक जमाकर वहाँ कम्यून पद्धति से गाँव के कामों की पुनर्रचना करना और आते हुए सभी करों से अपनी जेबें भरना यह माओवादियों की पुरानी कार्यपद्धति है ।
शहरों में संगठन का काम करने जैसी परिस्थिति अवश्य उपलब्ध है क्योंकि गावों से स्थलांतरित हुए मजदूरों के शोषण पर शहरों का अर्थचक्र चलता है । किन्तु यहाँ शासन अत्यंत शक्तिशाली होने के कारण किसी भी विद्रोह को पाशविक बल से रौंदने की क्षमता सरकार के पास होती है और उसे इस्तेमाल भी किया जाता है । इसीलिए शहरों में संगठन को प्रबल बनाने का काम माओवादियों को क्रांति के आखरी स्तर में करना होगा ऐसे दस्तावेज़ में निर्देश हैं ।
लेकिन ऐसा होने के बावजूद यूं भी तो नहीं है कि शहर में कोई भी काम आज नहीं किया जाये, बल्कि अत्यंत महत्वपूर्ण ऐसे कई काम शहरी दलों को सौंपे जाते हैं । यहाँ एक स्पष्ट नियम बताया गया है । माओवादियों ने अपने काम के दो विभाग किए हैं जो एक दूसरे से स्वतंत्र हैं । एक विभाग लोकाभिमुख रहता है ताकि कानून के दायरे में संगठन के जो भी काम आयेन उन्हें अंजाम दे सकें । दूसरे का काम अवैध कर्मों को गुप्त रीति से करना होता है । माओवादियों का मूल उद्देश्य भारत के क़ानूनों की संरचना के अनुसार नहीं हो सकता इसलिए वह अवैध है। तब जो भी कार्यकर्ता इस मूल उद्देश्य को समर्पित काम करते हैं उनके लिए नियम बना है कि वे कभी भी लोकाभिमुख कामों में सहभागी न हों । इसका हेतु स्पष्ट है ।
अब ये नियम यदि सरल लगे तब भी इसका अर्थ समझना आवश्यक है । जिन पांचों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है वे 'विधि की संरचना' में आनेवाले काम करते हैं। इसीलिए यही रोंआराट मचा है कि उन्होने किसी भी नियम का भंग नहीं किया है और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया है । याने वास्तव में ये लोग यही स्वीकार कर रहे हैं कि विधि की चौखट में रहकर भी माओवादियों के काम सुचारु रूप से किए जा सकते हैं ।
फिर भी यद्यपि वे इस बात के आग्रही हैं कि उनकी गतिविधियां अवैध नहीं है, उनके कथन में अनेक विसंगतियाँ भी दिखाई देती हैं । उदाहरण के लिए कोबाद घान्दी की केस देखते हैं । जहां प्रवेश पाना सामान्य व्यक्ति के लिए दुष्कर कर्म है ऐसे लंदन स्कूल ऑफ इक्नोमिक्स जैसी मान्यवर विदेशी संस्थान से पदवी प्राप्त किए कोबाद घान्दी दिल्ली में एक फर्जी नाम से रह रहे थे और कोर्ट ने उन्हें इसलिए दोषी ठहराया था। (https://indiankanoon.org/doc/169474309/) इतने पढे लिखे संभ्रांत व्यक्ति को फर्जी नाम से रहने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी क्या ये रहस्यमय नहीं ? शायद यूपीए सत्ता के अधीन पुलिस ये सिद्ध न कर पायी होगी कि फर्जी नाम से वे क्या काम कर रहे थे ।
माओवादियों का सशस्त्र संघर्ष भले ही पहले स्तर पर ग्रामीण विभागों में लड़ना होता है और उसका मूल काम पीपल्स लिबरेशन आर्मी (जन मुक्ति सेना) को सौंप दिया हो, इस आर्मी की गतिविधियां सुचारु रूप से चले इसलिए कई काम आवश्यक होते हैं । भारतीय सेना में भी सैनिकों को लगनेवाले खाने का सामान, यूनिफ़ोर्म, असलहा खरेदी आदि हजारों काम होते हैं और ये सभी काम करनेवाले कर्मचारी भी आखिर सेना का ही काम कर रहे होते हैं । इसलिए सेना का कर्मचारी केवल वही नहीं होता जो हाथ में बंदूक लिए लड़ता है। इसी तरह माओवादियों की सेना के लिए काम करनेवाले कई दल होते हैं ।
यह सर्वविदित है कि माओवादियों के गढ़ दुर्गम पहाड़ों में हैं जहाँ कोई फ़ैक्टरियाँ तो रहने दीजिये, बिजली भी नहीं है । इसका यही मतलब होता है कि इन सब चीजों का उत्पादन शहरों में ही होता है और माओवादियों को भी शहरों से ही उन्हें ख़रीदारी करनी आवश्यक है । माओवादी अपने कुछ शस्त्र खुद ही बनाते हैं लेकिन इस काम में आवश्यक कुछ पुर्जों का निर्माण शहरों में ही होता है । और यह काम बहुतही सफाई से किया जाता है । RAW के भूतपूर्व स्पेशल सेक्रेटरी श्री अमर भूषण कहते हैं कि असलहा जुटाना आसान नहीं । हालांकि कई बार माओवादी पुलिस के ही हथिर लूट जाते हैं यह सच है, लेकिन विदेशों से भी हथियार उपलब्धि के राजमार्ग बन गए हैं । इन खेपों को ग्रामीण माओवादियों तक पहुँचाने का काम शहरी माओवादी दल करते हैं ।
जिस ग्रामीण विभाग पर वे अपनी पकड़ जमा लेते हैं वहाँ भी अपनी सत्ता चलाने के लिए उन्हें कई चीजों की आवश्यकता होती है जो शहरों से ही जुटाई जाती हैं । शहरों का एकौर उपयोग होता है वो है कि यहाँ से पूर्णकालिक कार्यकर्ता उपलब्ध होते हैं । इस काम में माओवादियों को महारत होती है । फिर इन्हीं कार्यकर्ताओं को ग्रामीण विभाग्की तरफ मोड दिया जाता है । चीज़ें एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए शहरों से गुजरना होता है। ऐसे समय उन कार्यकर्ताओं के लिए उन शहरों में रहने की व्यवस्था करनी होती है । इसलिए Safe Houses के व्यवस्था करनी होती है । क्योंकि अपनी जान जोखिम में डालकर चलनेवाले कार्यकर्ता पुलिस के हाथों न लगे यह देखना होता है । ये महत्व की ज़िम्मेदारी शहरी माओवादी संभालते हैं ।
माओवादियों को शहरों में अधिक रस होने का एक कारण और भी है। देश के लिए जो अत्यावश्यक चीजें बनाने के कारखाने शहरों में होते हैं उनके क्रियाकलाप में अवरोध उत्पन्न कर उन्हें ठप्प कर देने की इनकी रणनीति होती है । ताजा उदाहरण तमिलनाडु की स्टरलाइट। देश के लिए जरूरी तांबा बनेवाली यह कंपनी ठप्प करवाने के बाद अब मुँहमाँगे चढ़े दामों पर महत्वपूर्ण विदेशी चलन दे कर तांबा खरीदने का विकल्प नहीं बचा। स्वाभाविक है कि देशहित को चोट पहुंचानेवाली यह कार्यप्रणाली को चलाने के लिए पर्यावरण से मानवाधिकार तक किसी भी कारण की ढाल आगे की जाती है, यह अनुभवित है।
शहरी माओवादी यहीं काम आते हैं ।
विदेशों से आती आर्थिक सहायता के उपयोग से देश को जलता रखना और उसके विखंडन का कार्य अनवरत जारी रखना यह भी शहरी माओवादियों का जिम्मा होता है ऐसे श्री अमर भूषण का कहना है (https://www.oneindia.com/…/urban-naxals-provide-the-pipelin…)
अगर माओवादियों के शत्रु का याने शासन का प्रबल केंद्र शहर में है तो ऐसे केंद्रस्थान में रहकर अधिकाधिक जानकारी इकट्ठा करना तथा नज़र रक्खे रहने का काम भी शहर में रहनेवाले शहरी माओवादी ही करते हैं । इसके लिए कभी प्रशासन के उच्चपदस्थ लोगों में घुलमिलकर रहना होता है । इनमें सरकार के सुरक्षा दल, सेना, राजनेता, वरिष्ठ सरकारी अधिकारी आदि सभी आते हैं । ऐसे लोगों में सहज होकर रहना और उनके मानों में अपने लिए यह विश्वास पैदा करना कि आप उनके हितैषी हैं, यह काम शहरी माओवादी बड़ी ही सफाई से निभाते हैं । उनकी यह धारणा है कि इसी तरह से सरकारी यंत्रणा को खोखली की जाये ये आवश्यक है ।
आज के सायबर युद्ध का महत्व माओवादी अच्छे से समझते हैं, इसीलिए इस क्षेत्र के एक्सपर्ट्स उन्होने अपने खेमे में खींच लिए हैं । इसलिए "ग्रामीण विभाग में हाथ में बंदूक लेकर लड़नेवाले माओवादी को आप एकबार गोली चलकर खत्म कर सकते हैं लेकिन यह शहरी माओवादी गोलियों से खत्म नहीं किया जा सकता । जबतक वो जिंदा है, अगले कार्यकर्ता बनाते जाता है । इसीलिए शहरी माओवादी अधिक भयंकर होते हैं "ऐसे श्री अमर भूषण का कहना है ।
इस पोस्ट में इतनी जानकारी के बाद, अगली पोस्ट में जो पकड़े गए हैं उनकी बैक्ग्राउण्ड का अभ्यास करेंगे ।
जारी......
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